बेर खाने के फायदे
बेर में तीन मुख्य किस्में हैं-चना बेर, कोल बेर और बड़े सौवीर बेर। चना बेर लगभग बड़े चने के बराबर और खट्टे होते हैं। मध्यम कद ” के मीठे बेर को ‘कोल बेर’ और बड़े आकार के मीठे बेर को ‘सौवीर बेर’ कहते हैं। इसके अलावा काशी बेर, राज बेर, अजमेरी बेर और सूरती बेर आदि बेर की कई किस्में हैं। पके बेर आहार के रूप में खाये जाते हैं। सूरत के नजदीक राँदर और उसके आसपास के प्रदेश में जो बेर होते हैं, वे ‘सूरती बेर’ कहलाते हैं। ये बेर जब सूख जाते हैं तभी खाने का सही मजा आता है।
पके बेर मधुर, खट्टे, उष्ण, कफकारक, पाचक, लघु और रुचिकर हैं। ये अतिसार, रक्तदोष, श्रम और शोष को मिटाते हैं। छोटे चना बेर खट्टे, कषाय और कुछ मीठे होते हैं। ये पित्त और वायु को दूर करते हैं। पके चना बेर को कूटकर उसका बेरकूटा बनाकर भी लोग खाते हैं। सर्व प्रकार के सूखे बेर मल को मुक्त करनेवाले, अग्नि को प्रदीप्त करनेवाले और हल्के होते हैं। ये तृषा, ग्लानि तथा रक्तविकार को दूर करते हैं।
बेर के फूलों और पत्तों का रंगकाम में उपयोग होता है। इनके पत्ते रेशम के कीड़ों को भी खिलाये जाते हैं। इसके ताजा हरे पत्ते मवेशियों को चारे के रूप में खिलाये जाते हैं। बेर-वृक्ष की छाल लाल-भूरे रंग की होती है। इसमें काफी मात्रा में टेनिन एसिड होता है। बेर-वृक्ष पर उत्तम किस्म की लाख आती है। बेर-वृक्ष की लकड़ी से खेती के औजार बनते हैं। यह लकड़ी जलाने के काम भी आती है। इसके फल, बीज, पर्ण और छाल का औषधि के रूप में उपयोग होता है।
बेर शीतवीर्य, गुरु, शुक्रवर्धक, श्रमहर, हृद्य, तृषाशामक, दाहशामक, क्षयनिवारक, मांसवर्धक और आमनाशक हैं। बड़े कलमी बेरों में वृष्य और शुक्ल गुण ज्यादा हैं। ये अतिसार, रक्तदोष, श्रम और शोष को मिटाते हैं।
सौवीर बेर (खूब मीठे और बड़े बेर) ठंडे, मल को तोड़नेवाले, भारी, वीर्यवर्धक और पुष्टिकारक हैं। ये पित्त, दाह, रक्तविकार, क्षय और तृषा को दूर करते हैं।
कोल बेर (मीठे और छोटे-मध्यम बेर) मल को रोकनेवाले, रुचि उत्पन्न करनेवाले, गर्म, वायुकारक, कफ और पित्त करनेवाले, भारी तथा मल को हटानेवाले हैं।
चना बेर खट्टे, कसैले, कुछ मीठे, स्निग्ध, भारी और कटु हैं। ये वायु तथा पित्त को नष्ट करते हैं।
चरक बेर को स्वेद लानेवाले, रेचक, जुकाम को रोकनेवाले, श्रमहारक और वात-पित्त का शमन करनेवाले मानते हैं।
सुश्रुत बेर को रक्तपित्तहर, वातशामक, शुक्रदोषनाशक और शोकनाशक मानते हैं।
बेर के बीज का गर्भ कसैला, मधुर, शुक्रवर्धक, बल्य, वृष्य, वातहर, चक्षुष्य एवं पित्तशामक है। यह खाँसी, श्वास, हिचकी, तृषा, उल्टी और दाह का नाश करता है। बेर-वृक्ष के पत्तों का लेप ज्वरदाहनाशक और विस्फोट मिटानेवाला है। इसके पत्तों की पुलटीस बनाकर फोड़ों पर बाँधी जाती है। बेर-वृक्ष की छाल ग्राही है। यह अतिसार, रक्तातिसार, पेचिश, प्रदर और रक्तपित्त पर दी जाती है। छाल का काढ़ा फूटे हुए फोड़ों, व्रण-घाव, जख्म और सड़े-गले घाव को धोने में उपयोगी है।
बेर-वृक्ष की छाल का टुकड़ा मुँह में रखकर उसका रस चूसने से, दबी हुई आवाज दो-तीन दिन में ही खुल जाती है।
सूखे अथवा ताजा चना बेर दो तोला लेकर सोलह गुना पानी में उबालिए। उसका एक-चौथाई क्वाथ बनाकर कपड़े से छान लीजिए। उसमें थोड़ी चीनी मिलाकर पीने से ज्वर का दाह, तृषा एवं व्याकुलता दूर होती है और पित्तज्वर उत्तर जाता है। विषमज्वर में भी यह क्वाथ उपयोगी है।
बेर के बीज का गर्भ, मुरमुरे, बड़ के अंकुर और मुलेठी-इन चारों का क्वाथ बनाकर, उसमें शहद और शर्करा डालकर पीने से उलटी बंद होती हैं।
बेर-वृक्ष के पत्तों का चूर्ण मट्टे के साथ देने से अतिसार मिटता है। बेर के मूल की छाल के क्वाथ में मूँग का पसावन बनाकर पीने से अतिसार मिटता है।
बैर-वृक्ष की छाल को बकरी के दूध में पीसकर, शहद मिलाकर पीने से अतिसार और रक्तातिसार (पेचिश) मिटता है। इसके मूल की छाल और तिल को अलग-अलग चटनी की तरह पीसकर गाय अथवा बकरी के दूध के समभाग में मिलाकर पीने से भी रक्तातिसार मिटता है।
बेर-वृक्ष की छाल का चूर्ण पाव-पाव तोला सुबह-शाम गुड़ के साथ देने से श्वेत प्रदर और रक्त प्रदर मिटता है। चना-बेर की छाल का चूर्ण गुड़ अथवा शहद के साथ देने से भी श्वेतप्रदर और रक्तप्रदर मिटता है। मेर-चूस के मुलायम पत्ते तथा जीरा मिलाकर, पानी में पीसकर, उनका भाग जैसा रगड़ा बनाकर, कपड़े से छानकर पीने से गर्मी के कारण रुका हुआ पेशाब साफ उत्तरता है।
बेर-वृक्ष की लाख एक तोला लेकर, क्वाथ बनाइए। उसमें पूरे कुमड़े का रस मिलाकर, दिन में दो-तीन बार पीने से उरःक्षत का रक्तस्राव बंद होता है।
बेर के बीज का गर्भ अथवा बेर-वृक्ष की अंतरत्वचा पानी में पीसकर लेने से भस्मक रोग में लाभ होता है।
चेचक में बेर के पत्तों का रस भैंस के दूध के साथ देने से रोग का बेग कम होता है। बेर के पत्तों का कल्क छः-छः माशा, दो-दो माशा गुड़ मिलाकर खिलाने से भी दो-तीन दिन में ही चेचक शान्त होने लगता है।
बेर-वृक्ष की छाल और उसके पत्तों का काढ़ा बनाकर, छाछ में मिलाकर, पशुओं को पिलाने से उनका चेचक रोग दूर होता है।
बेर के कोमल पत्तों को कूटकर, पानी मिलाकर, घड़े में डालकर, मथनी से बिलोने पर जो झाग आएँ, उनका शरीर पर मर्दन करने से मदात्यय दाह तथा अन्य प्रकार का दाह शान्त होता है।
बेर के बीज को पानी में घिसकर, दिन में दो बार, एक-दो महीने तक, आँख में लगाने से नेत्रस्राव बंद होता है।
बेर के पत्तों का क्वाथ बनाकर दिन में दो-तीन बार कुल्ले करने से मुखपाक मिटता है। रसकपूरयुक्त किसी दवाई का सेवन करने से मुखपाक हुआ हो, दाँतों के मसूड़े ढीले पड़ गये हों। और मुँह में से लार टपकती हो तो बेर-वृक्ष की छाल अथवा पत्तों का क्वाथ बनाकर कुल्ले करने से आराम होता है।
बेर के पत्तों को पीसकर, गर्म कर, उसकी पुलटीस बाँधने से और बार-बार उसको बदलते रहने से फोड़े शीघ्र पककर फूट जाते हैं।
बेर के बीज का गर्भ और पलाश-बीज समान भाग में मिलाकर आक के दूध में छः घंटे तक खरलकर, बनाई हुई बाती को घिसकर, बिच्छू के डंक पर लेप करने से बिच्छू का जहर उतरता है।
बेर एक सामान्य फल है। इसका ज्यादा सेवन करने से खाँसी होती है। कच्चे बेर कभी न खाएँ।