द्राक्ष खाने के फायदे
द्राक्ष एक प्रकार का श्रेष्ठ कुदरती मेवा है। उत्तम कोटि के फलों में इसकी गणना होती है। यह स्वाद में मधुर होती है।
द्राक्ष की बेल होती है। इस बेल का रंग लालिमा लिए हुए रहता है। मंडप बनाकर बेल को उस पर चढ़ा दिया जाता है। द्राक्ष की बेल को गुच्छों में फूल लगते हैं। युरोप-अमेरिका में द्राक्ष की बोआई भारी मात्रा में होती है। युरोप में फ्राँस और इटली तथा अमरीका में कैलिफोर्निया में अच्छी द्राक्ष होती है। दुनिया भर में अधिकतम द्राक्ष फाँस के दक्षिणी हिस्से में होती है। वहाँ द्राक्ष के विशाल और जंगी बगीचे हैं। कोकेसस पर्वत और कास्पिअन समुद्र के दक्षिण प्रदेश में, एशिया खंड के पश्चिम भाग तथा युरोप के दक्षिण भाग में, अल्जिरिया, मोरोक्को आदि देशों में प्राकृतिक ढंग से उगी हुई अंगूर की बेलें देखने को मिलती हैं। काबुल, कंदहार और कश्मीर से लेकर हिंदुकुश पर्वत के उत्तरी भाग में भी द्राक्ष काफी तादाद में होती है। द्राक्ष की बेल दो-तीन वर्ष की होने पर फूलने-फलने लगती है। विशेषतः फरवरी-मार्च महीने में बाजार में हरी (ताजा) द्राक्ष अत्यधिक मात्रा में दिखाई देती है।

भारत में द्राक्ष का उत्पादन पंजाब, हरियाणा तथा महाराष्ट्र में बड़े पैमाने में होता है। पुणे, सतारा, नासिक, खानदेश और गुजरात में खेड़ा जिले में द्राक्ष अधिक होती है।
द्राक्ष दो किस्म की होती है-काली और सफेद । सफेद द्राक्ष ज्यादा भीठी होती है, इसलिए महँगी भी होती है। काली द्राक्ष सभी प्रकृतिवालों को सभी रोगों में लाभप्रद और गुणकारी मानी जाती है। काली द्राक्ष का दवा में अधिक उपयोग होता है। बेदाना, मुनक्का और किसमिस-ये द्राक्ष की प्रमुख किस्में हैं। बेदाना, मुनक्का और किसमिस-इन नामों का प्रयोग सूखी द्राक्ष के लिए होता है। बेदाना नामक द्राक्ष कुछ सफेद होती है और उसमें बीज नहीं होते। मुनक्का द्राक्ष कुछ काली होती है। किसमिस ज्यादातर बेदाना जैसी ही, परंतु कुछ छोटी होती है। द्राक्ष गर्म देश के लोगों की भूख और प्यास का शमन करने में खूब उपयोगी होती है। यह पित्तशामक और रक्तवर्धक है। हरी (ताजा) द्राक्ष अंशतः कफकारक मानी जाती है। परंतु सेंधा नमक या नमक के साथ खाने से कफ होने का भय नहीं रहता। द्राक्ष बच्चे, युवा, वृद्ध, सगर्भा और प्रसूता सभी के लिए लाभदायक है।
भारत में सूखी द्राक्ष अरबस्तान आदि अन्य देशों में से मँगाई जाती है। अरबस्तान, ईरान और काबुल में यह भारी मात्रा में उत्पन्न होती है। दूसरे देशों की तुलना में इन देशों की द्राक्ष अधिक अच्छी होती है। सूखी द्राक्ष की अपेक्षा हरी (ताजा) द्राक्ष कुछ खट्टी, किंतु अधिक स्वादिष्ट (खटमीठी) और गुणकारी होती है। द्राक्ष काजू वगैरह के साथ नाश्ते के रूप में भी ली जाती है। मुँह का जायका और रुचि लाने के लिए भी द्राक्ष का सेवन किया जाता है।
पुरानी कब्जवाले लोग यदि प्रतिदिन थोड़ी या ज्यादा द्राक्ष खाएँ तो उन्हें नर्म दस्त आते हैं और कब्जियत निश्चित रूप से दूर होती है। जिन्हें अर्श-मस्सों की तकलीफ हो वे यदि द्राक्ष का सेवन करें तो, द्राक्ष रेचक होने से, उन्हें नर्म दस्त होते हैं अर्श की पीड़ा कम होती है। जिन लोगों को पित्त-प्रकोप हुआ हो, वे यदि द्राक्ष खाएँ तो उनका पित्त-प्रकोप शान्त होता है, शरीर में होनेवाली जलन दूर होती है और उल्टी की शिकायत हो तो वह भी बंद होती है। द्राक्ष के सेवन से रक्त में स्थित खराब गर्मी दूर होती है, रक्त शुद्ध और ठंडा होता है। उपरांत, यदि शरीर निर्बल रहता हो, वजन बढ़ता न हो, चमड़ी शुष्क हो गई हो, आँखों में धुँधलापन महसूस होता हो और जलन रहती हो तो द्राक्ष का सेवन करने से ये सभी शिकायतें दूर होती हैं। द्राक्ष में स्थित विटामिन ‘सी’ के कारण स्कवीं और विचा के रोगों का इससे अच्छा प्रतिकार होता है। इतना ही नहीं, यह सदी, मानसिक अस्वस्थता, श्वास आदि रोगों से भी रक्षा करती है। द्राक्ष में उत्तेजना और ताजगी देने का गुण है, अतः द्राक्ष खाने से शरीर में स्फूर्ति व ताजगी आती है। युरोप में द्राक्ष का खूब उपयोग होता है। यहाँ इससे शराब भी बनती है। महर्षि वाग्भटूट ने द्राक्ष को ‘फलोत्तमा’ कहा है। इसके गुण देखने पर यह नाम सार्थक मालूम पड़ता है। द्राक्ष मधुर होने से ‘मधुफला’ और रसवाली होने से ‘रसाला’ कहलाती है। हरी, ताजा द्राक्ष ‘अंगूर’ के नाम से प्रसिद्ध है। औषध के रूप में द्राक्ष के फल, बीज व पत्तों का उपयोग होता है।
द्राक्ष शुक्रवर्धक और आँखों के लिए हितकारी है। यह शरीर में से मल-मूत्र को बाहर निकालती है। यह स्वाद और पाक में (पचने पर) मधुर, स्निग्ध, कुछ कसैली, शीतल और गुरु है। यह वायु, रक्तपित्त, मुँह की कटुता, मदात्यय (शराब पीने से होनेवाला रोग), खाँसी, थकावट (और उससे उत्पन्न होनेवाला हाँफा), स्वरभेद, आवाज का बैठ जाना तथा क्षत और क्षय को मिटाती है।
कच्ची द्राक्ष बहुत कम गुणवाली और भारी होती है। खट्टी द्राक्ष रक्तपित्त करती है। हरी (परिपक्व) द्राक्ष गुरु, खट्टी, उष्ण (गर्म), रक्तपित्तकारक, रुचिकारक, दीपक और वातनाशक है।
पकी द्राक्ष मल को सरकानेवाली, शीतल, नेत्रों के लिए हितकारी, पौष्टिक, गुरु पाक तथा रस में मधुर, स्वर को अच्छा बनानेवाली, कसैली, मल-मूत्र को बाहर निकालनेवाली, पेट में वायु करनेवाली, वीर्यवर्धक और कफ तथा रुचि उत्पन्न करनेवाली है। यह तृषा, ज्वर, श्वास, वायु, वातरक्त, पीलिया मूत्रकृच्छ्र (दर्द के साथ बूंद-बूंद पेशाब होना), रक्तपित्त मोह, दाह, शोष और मदात्यय रोग को मिटाती है।
रसदार, गोस्तनी द्राक्ष वीर्यवर्धक, गरिष्ठ, कफ तथा पित्त को मिटानेवाली है।
बीज-रहित छोटी किसमिस द्राख में द्राक्ष के समान ही गुण होते हैं।
आयुर्वेद के मत के अनुसार द्राक्ष सारक (सारक गुणवाली) स्वर्या (स्वर को अच्छा करनेवाली), मधुरा (रस और विपाक में मिठासवाली) और लिग्घशील (चिकनाहट और शीतल गुणवाली) है। द्राक्ष उत्तम पथ्य है। अतएव अत्यंत प्राचीन काल से इसका पथ्य रूप में और औषध के रूप में उपयोग होता रहा है। बुखार, क्षय इत्यादि रोगों से आयी हुई अशक्ति में द्राक्ष और द्राक्ष से बना आसव, शरबत अमृतसमान लाभकारक है। विशेषतः द्राक्ष शीतवीर्य, रस और विपाक में मधुर, अनुरस में कसैली, हृद्य, हर्षप्रद, रोचक, वृष्य, तृप्तिकार, वातानुलोमन, स्निग्ध, चक्षुष्य, कंठ के लिए हितकर और श्रमहर है। द्राक्ष तृषा, दाह, ज्वर, श्वास, रक्तपित्त, क्षत, क्षय, वातप्रकोप, पित्तप्रकोप, उदावर्त, स्वरभेद, मदात्यय, मुँह की कड़वाहट, मूलशोष, खाँसी, उल्टी, भ्रम, शोष और मूत्रावरोध का नाश करती है। संक्षेप में, द्राक्ष शरीर में तुरंत शक्ति, तृप्ति तथा ताजगी लाती है। यह वायु और गर्मी के बुखार, तृषा, वातपित्त दोषजन्य श्वास-खाँसी, पीलिये वायु, वातरक्त, मूत्रकृच्छ्र, रक्तपित्त, मोह, भ्रम, दाह, शोष, मदात्यय और छाती के रोगों को मिटाती है, श्रम हरती है और नयी ताजगी देती है। पेट, आँतों या शरीर में अन्यत्र होनेवाले अल्सर (उपदंश) को द्राक्ष अच्छी तरह रुझाती है। त्वचा और रक्त संबंधी सभी रोगों को यह मिटाती है। रक्त की खराब गर्मी तथा विकृति को दूर करके यह रक्त को स्वस्थ, नीरोगी और शक्तिशाली बनाती है।
सोंठ एक तोला, काली मिर्च एक तोला, पीपर एक तोला और सेंधा नमक एक तोला-इन सबको कूटकर, कपड़े से छानकर चूर्ण बनाइए। इसमें चालीस तोला काली द्राक्ष बीज निकालकर मिलाइए और चटनी की तरह पीसकर काँच के बर्तन में भर लीजिए। यह चटनी ‘पंचामृत अवलेह’ के नाम से प्रसिद्ध है। इस अवलेह का आधे तोले से दो तोले के करीब सुबह शाम सेवन करने से अरुचि, वायु, मंदाग्नि, कब्जियत, शूल, मुँह की लार, कफ आदि मिटता है। यह द्राक्ष का उत्तम प्रयोग है।
एक सौ बीस तोला पानी में एक सौ आठ तोला चीनी डालकर आग पर रखिए। उफान आने के बाद उसमें हरी द्राक्ष का स्वरस अस्सी तोला डालकर, डेढ़तारी चासनी बनाकर शरबत तैयार कीजिए। यह शरबत पीने आयुर्वेद के मत के अनुसार द्राक्ष सारक (सारक गुणवाली) स्वर्या (स्वर को अच्छा करनेवाली), मधुरा (रस और विपाक में मिठासवाली) और (वाघशील (चिकनाहट और शीतल गुणवाली) है। द्राक्ष उत्तम पथ्य है। अतएव अत्यंत प्राचीन काल से इसका पथ्य रूप में और औषध के रूप मैं उपयोग होता रहा है। बुखार, क्षय इत्यादि रोगों से आयी हुई अशक्ति में द्राक्ष और द्राक्ष से बना आसव, शरबत अमृतसमान लाभकारक है। विशेषतः द्राक्ष शीतवीर्य, रस और विपाक में मधुर, अनुरस में कसैली, हृद्य, हर्षप्रद, रोचक, दृष्य, तृप्तिकार, वातानुलोमन, स्निग्ध, चक्षुष्य, कंठ के लिए हितकर और श्रमहर है। द्राक्ष तृषा, दाह, ज्वर, श्वास, रक्तपित्त, क्षत, क्षय, वातप्रकोप, पित्तप्रकोप, उदावर्त, स्वरभेद, मदात्यय, मुँह की कड़वाहट, मूलशोष, खाँसी, उल्टी, भ्रम, शोष और मूत्रावरोध का नाश करती है। संक्षेप में, द्राक्ष शरीर में तुरंत शक्ति, तृप्ति तथा ताजगी लाती है। यह वायु और गर्मी के बुखार, तृषा, वातपित्त दोषजन्य श्वास-खाँसी, पीलिये वायु, वातरक्त, मूत्रकृच्छ्र, रक्तपित्त, मोह, भ्रम, दाह, शोष, मदात्यय और छाती के रोगों को मिटाती है, श्रम हरती है और नयी ताजगी देती है। पेट, आँतों या शरीर में अन्यत्र होनेवाले अल्सर (उपदंश) को द्राक्ष अच्छी तरह रुझाती है। त्वचा और रक्त संबंधी सभी रोगों को यह मिटाती है। रक्त की खराब गर्मी तथा विकृति को दूर करके यह रक्त को स्वस्थ, नीरोगी और शक्तिशाली बनाती है।
सोंठ एक तोला, काली मिर्च एक तोला, पीपर एक तोला और सेंधा नमक एक तोला-इन सबको कूटकर, कपड़े से छानकर चूर्ण बनाइए। इसमें चालीस तोला काली द्राक्ष बीज निकालकर मिलाइए और चटनी की तरह पीसकर काँच के बर्तन में भर लीजिए। यह चटनी ‘पंचामृत अवलेह’ के नाम से प्रसिद्ध है। इस अवलेह का आधे तोले से दो तोले के करीब सुबह शाम सेवन करने से अरुचि, वायु, मंदाग्नि, कब्जियत, शूल, मुँह की लार, कफ आदि मिटता है। यह द्राक्ष का उत्तम प्रयोग है।
एक सौ बीस तोला पानी में एक सौ आठ तोला चीनी डालकर आग पर रखिए। उफान आने के बाद उसमें हरी द्राक्ष का स्वरस अस्सी तोला डालकर, डेढ़तारी चासनी बनाकर शरबत तैयार कीजिए। यह शरबत पीने से तृषारोग, शारीरिक गर्मी, क्षय आदि रोगों में फायदा होता है। वृषारोग, बीज-रहित द्राक्ष दस तोला लेकर, उसे नीबू के रस में पीसकर, उसमें उतना ही पानी मिलाकर, एकरस बनाकर, कपड़े से छान लीजिए। फिर उसमें पके अनार के दानों का चालीस तोला रस मिलाइए। इसके बाद उसमें अस्सी तोला चीनी डालकर, चासनी बनाकर, शरबत तैयार कीजिए। यह शरबत दो-ढाई तोला पीजिए। यह रुचिकर, पित्तशामक
एवं मंदाग्नि पर हितकर है। काली द्राक्ष रात में भिगोकर रखिए। दूसरे दिन सुबह उसे मसलकर छान लीजिए। उसमें जीरा की बुकनी और शर्करा डालकर पीने से पित्त का दाह मिटता है।
काली द्राक्ष, पितपापड़ा और आँवले आधा-आधा तोला लेकर रात को आधा पौंड पानी में भिगो दीजिए। प्रातः उसे मसलकर, छानकर, उसमें एक बोला शर्करा मिलाकर पीने से आमाशय के पित्तप्रकोप से होनेवाला दाह मिटता है।
द्राक्ष और मिसरी एकत्र करके प्रातःकाल में खाने से शरीर का भीतरी दाह मिटता है।
द्राक्ष, पितपापड़ा और धनिया-इन तीनों को पानी में भिगो दीजिए। फिर छानकर पिलाने से आम शीघ्र पक जाता है, आमजन्य ज्वर शांत होता है और ज्वर की व्याकुलता, मलावरोध, सिरदर्द, खाँसी आदि उपद्रव दूर होते हैं। इससे शारीरिक गर्मी भी दूर होती है।
द्राक्ष और अमलतास के जड़ का क्वाथ पीने से पित्तज्वर मिटता है। द्राक्ष और शर्करा मुँह में रखकर उनका रस चूसने से खाँसी मिटती
है।
द्राक्ष, आँवले, खजूर, पीपर और काली मिर्च समभाग में लेकर, पीसकर चूर्ण बनाइए। इसे कपड़े से छान लीजिए। इसमें से पाव-पाव तोला चूर्ण शहद मिलाकर दिन में तीन बार चाटने से सूखी खाँसी मिटती है।
द्राक्ष और आँवले पीसकर, घी मिलाकर, मुँह में घिसने से अथवा उसकी गोली बनाकर रस चूसने से जीभ, तालु और गले का शोष दूर
होता है और रुचि उत्पन्न होती है।
सन्निपात में किसमिस द्राक्ष को पीसकर, शहद मिलाकर, जीभ पर मलते रहने से आर्द्रता आती है।
काली द्राक्ष और मुलेठी का काढ़ा बनाकर पीने से तृषारोग मिटता
है। हरी द्राक्ष का रस अथवा किसमिस द्राक्ष को पीसकर, पानी में मसलकर बनाया हुआ रगड़ा पीने से दाहयुक्त तृषारोग शांत होता है।
द्राक्ष और सौंफ दो-दो तोला लेकर रात में आधा पौंड पानी में भिगोकर रख दीजिए। प्रातः उसे मसल, छानकर, उसमें एक तोला शक्कर मिलाकर, थोड़े दिनों तक पीने से अम्लपित्त खट्टी डकारें, उबकाई, खट्टी उल्टी, मुँह में छाले पड़ना, आमाशय में जलन होना, पेट का भारीपन आदि मिटते हैं।
द्राक्ष और बाल-हर्र समभाग लेकर, उसमें उतनी ही शर्करा मिलाकर, उसकी एक-एक तोले की गोलियाँ बनाइए। इन गोलियों का सेवन करने से अम्लपित्त मिटता है और आमवात नष्ट होता है।
द्राक्ष और धनिया एक-एक तोला पीसकर, पानी में एकरस बनाकर पीने से पित्त की उल्टी बंद होती है।
बीज निकाली हुई द्राक्ष, घी और शहद एकत्र कर चाटने से क्षतकास मिटता है। उरःक्षत के कारण खून की उल्टी होती हो तो वह भी बंद होती है।
बीज निकाली हुई द्राक्ष दो तोला खाकर ऊपर से आधा सेर दूध पीने से भूख खुलती है, मलशुद्धि होती है, ज्वर के बाद की दुर्बलता दूर होती है और शरीर में शक्ति आती है।
द्राक्ष, शर्करा, शहद और पीपर का सेवन करने से धातुक्षय रुकता
है।
द्राक्ष, मुलेठी और हरी गिलोय एक-एक तोला लेकर चार गुना पानी में मिलाकर, उसका काढ़ा बनाकर सुबह-शाम पीने से ऊर्ध्व रक्तपित्त (नाक, मुँह, नेत्र, या कान में से होनेवाला रक्तस्राव), अधोरक्तपित्त (गुदा और मूत्रेन्द्रिय से होनेवाला रक्तस्राव) शांत होता है। द्राक्ष को शहद में मिलाकर खाने से भी रक्तपित्त मिटता है।
द्राक्ष और उबर के मूल एक-एक तोला लेकर, उसका क्वाथ बनाकर देने से भी दोनों प्रकार के रक्तपित्त एवं उरःस्थल का शूल मिटता है।
द्राक्ष और धमासा एक-एक तोला लेकर, उसका काढ़ा बनाकर पीने से, उरःशूल के कारण खाँसी में खून गिरता हो तो, वह बंद होता है। उद्राक्ष और अडूसे का काढ़ा बनाकर पीने से शूल मिटता है।
तीन-चार तोला काली द्राक्ष को रात में ठंडे पानी में भिगोकर रखिए। सुबह मसलकर छान लीजिए। इसे थोड़े दिनों तक पीने से कब्ज
मिटती है। सेंधा नमक और काली मिर्च बारीक पीसकर, द्राक्ष को लगाकर, रात में एक-एक द्राक्ष खाने से मल की शुद्धि होती है और कब्ज मिटती है।
किसमिस द्राक्ष दो तोला और छोटी इलायची के दाने दो माशा चटनी की तरह पीसकर, एक पौंड पानी में मिलाकर छान लीजिए। इसमें शक्कर डालकर पिलाने से, धूप में घूमने के कारण होनेवाला मूत्रकृच्छ्र का दाह मिटता है और पेशाब साफ आता है।
चार तोला काली द्राक्ष को रात में ठंडे पानी में भिगोकर रख दीजिए। सुबह मसल, छान, थोड़े जीरे की बुकनी डालकर पीने से पेशाब की गर्मी दूर होती है और पेशाब साफ आता है।
काली द्राक्ष एक तोला, पाषाणभेद, धमासा, लाल पुनर्नवा के मूल और अमलतास का गुड़ आधा-आधा तोला लेकर, एकत्र कर पीस डालिए। इसे एक पौंड पानी में उबालकर, चतुर्थांश क्वाथ बनाकर छान लीजिए। यह क्वाथ पिलाने से एक-दो घंटे में ही, रुका हुआ पेशाब छूट जाता है और मुत्रावरोध मिटता है।
काली द्राक्ष को रात में ठंडे पानी में भिगोकर प्रातः शक्कर डालकर पीने से मूत्रकृच्छ्र मिटता है।
काली द्राक्ष का क्वाथ बनाकर पीने से मूत्रकृच्छ्र मिटता है। मूत्राशय की पथरी में भी यह लाभ करता है।
दो तोला बेदाना द्राक्ष को गाय के दूध में उबालकर रात को सोते
समय पीने से मस्तिष्क की गर्मी निकल जाती है।
द्राक्ष और उबाले हुए आँवले शहद में मिलाकर देने से मूर्च्छा रोग में लाभ होता है।
दो तोला द्राक्ष पर घी लगाकर, तवे पर सेंककर, थोड़ा सेंधा नमक और काली मिर्च का बारीक चूर्ण लगाकर, रोज सुबह सेवन करने से बातप्रकोप दूर होता है और दुर्बलता के कारण यदि सिर चकराता हो तो आराम होता है।
द्राक्ष और धनिया को ठंडे पानी में भिगोकर पीने से आधा सीसी मिटता है।
दो तोला द्राक्ष रात को पानी में भिगोकर रखिए। प्रातः उसे मसलकर छान लीजिए। फिर उसमें शक्कर मिलाकर पीने से आँखों की गर्मी और दाह मिटता है।
द्राक्ष का सिरका दूध में डालकर पिलाने से धतूरे का विष उतरता है।
खट्टी या कच्ची द्राक्ष नहीं खानी चाहिए। द्राक्ष सारक और मूत्रल है, अतः सिर्फ द्राक्ष का अतिशय सेवन शरीर को कृश बनाता है। आहार के साथ थोड़ी-थोड़ी द्राक्ष खानी चाहिए। द्राक्ष को गर्म पानी में धोने के बाद ही उसका उपयोग करें, ताकि गंदकी या जंतु दूर हो जाएँ।
यूनानी वैदक के मतानुसार द्राक्ष कफ को पतला करके बाहर निकालती है, स्त्रियों के मासिक धर्म को नियमित करती है, कब्जियत दूर करती है, रक्त को बढ़ाती है और माँस को पुष्ट करती है। यह मधुराम्ल-खटमीठी और दीपक-पाचक है। फेंफड़ों, यकृत, मूत्राशय के रोगों और जीर्ण ज्वर में यह लाभदायक है। इसका रस सिरदर्द, उपदंश आदि को मिटाता है। इसके बीज शीतल, कामोत्तेजक और ग्राही हैं। इसके पत्ते अर्श को मिटाते हैं। इसकी बेल की शाखाएँ मूत्राशय-अंडकोष की सूजन में फायदाकारक हैं। इसकी बेल की भस्म मूत्राशय की पथरी को पिघलाकर निकालने में सहायक बनती है। उपरांत, जोड़ों की पीड़ा को *
दूर करती है और अर्श की सूजन को मिटाती है। वैज्ञानिक मत के अनुसार द्राक्ष में विटामिन ‘ए’, ‘बी’ और ‘सी’,लोह तथा शरीर को बल प्रदान करनेवाले पौष्टिक द्रव्य हैं। उपरांत, इसमें पोटेशियम, सेल्यूलोझ, शर्करा, तथा कार्बनिक अम्ल हैं, जिसके कारण यह के रस के सेवन से यकृत शक्ति प्राप्त होती है। द्राक्ष में फलशर्करा और कार्बोहाइड्रेट अत्यक्मेि भात्रा में है। अतः पौष्टिकता की दृष्टि से दूसरे किसी भी फल की अपेक्षा यह बढ़-चढ़केर है। यद्यपि कुछ वैज्ञानिक द्राक्ष के पोषण-मूल्य को ज्यादा ऊँचा नहीं मानते। ज्वर, क्षय आदि रोगों में जब शारीरिक बल का नाश को जाता है तब बल की सुरक्षा और संवर्धन के लिए द्राक्ष एवं द्राक्ष में से बने आसव तथा शरबत अमृत के समान लाभ देते हैं।