मूली अत्यंत प्रसिद्ध है और भारत में सर्वत्र होती है। महाराष्ट्र में पुणे और खानदेश जिले में मूली अधिक मात्रा में होती है। मूली का उपयोग प्राचीन काल से होता रहा है। बीज बोकर इसका उत्पादन किया जाता है। अच्छे निथारवाली, नरम और खादवाली जमीन मूली के लिए अधिक अनुकूल रहती है। मूली भी गाजर की तरह जमीन के भीतर केंद के रूप में होती है। इसके पौधे भी गाजर के पौधों के बराबर (एक डेढ़ फीट) ऊँचाईवाले होते हैं।

benefits of radish

मूली के फायदे [Benefits of Radish]



मूली में दो मुख्य किस्में होती हैं-सफेद और छोटी सफेद । उपरांत लाल, गोल आदि अन्य किस्में भी होती हैं। मारवाड़ी मूली अपेक्षाकृत अधिक बड़ी, तीखेपन से रहित और सरलता से चबाई जा सके ऐसी होती है। जापानी मूली दो फीट लंबी और तीन इंच के घिराववाली (मोटी) होती है। मूली विशेषकर सर्दियों की ऋतु में होती है। कुछ स्थानों में ये सभी ऋतुओं में उपलब्ध होती हैं। मूली विशेषकर सर्दियों की ऋतु में होती है। कुछ स्थानों में ये सभी ऋतुओं में उपलब्ध होती है। कार्तिक मास में मूली पथ्य मानी जाती है।

चरक ने मूली को ‘अधम कंद’ कहा है- ‘मूलकमधमकन्दानाम् ।’ तथापि मूली का औषध के रूप में तो उपयोग दर्शाया है। मूली कच्ची खाई जाती है। मूली व इसके पत्तों का साग भी बनता है। सुकोमल मूली का अचार और रायता बनता है। मूली की भाजी में ढोंकली भी बनाई जाती है। यह बहुत स्वादिष्ट लगती है। कुछ लोग मूली के पत्तों में बेसन मिलाकर स्वादिष्ट तरकारी बनाते हैं, तो कुछ लोग ‘मूठिये’ और ‘ढेबरे’ भी बनाते हैं। मूली की फलियों को ‘मोगरी’ कहते हैं। उसका भी साग और रायता बनता है। छोटी मूली को ‘लघु मूलक’ कहते हैं। मूली के बीज से तेल निकलता है। इसकी गंध और स्वाद मूली जैसे ही होते हैं। मूली का तेल वजन में पानी से भारी और रंग-रहित होता है।

भोजन के मध्य में कच्ची मूली खाने से रुचि बढ़ती है। मूली के गोलाकार टुकड़े कर, थोड़ा-सा नमक छिड़ककर, सर्दियों में प्रातः रोटी या भाकरी के साथ खाते हैं। नमकीन के साथ मूली स्वादिष्ट लगती है। कोमल मूली का कचूमर भोजन के साथ खाने से जठराग्नि तेज होती है। भूली में ज्वरनाशक गुण है। तिल्लीवालों के लिए भी मूली लाभदायक है। शीतकाल में मूली दीपन, पाचन और पोषण करनेवाली है। मूली के पत्ते अधिक मात्रा में खाने से पेशाब और दस्त साफ आते हैं। अर्श के रोगी को मूली के पत्ते अथवा उसका रस देने से फायदा होता है। मूली के कंद की अपेक्षा उसके पत्तों के रस में ज्यादा गुण हैं। मूली के पत्ते पाचन में हलके, रुचि उत्पन्न करनेवाले और गर्म हैं। ये कच्चे खाने पर पित्त को बढ़ाते हैं। परंतु धी में इनकी तरकारी बनाकर खाने से ये गुणकारी हैं। पत्तों के स्वरस की मात्रा ढ़ाई से पाँच तोले तक की और बीज की मात्रा चार से आठ माशा है।

छोटी मूली तिक्त, उष्ण, रुचि-उत्पादक, लघु, पाचक, त्रिदोषहारक और स्वर-संशोधक है। यह ज्वर, श्वास, नाक के रोगों, कंठ के रोगों और नेत्र के रोगों को मिटाती है। बड़ी मूली रुक्ष, उष्ण, गरिष्ठ और त्रिदोष-उत्पादक है। परंतु इसे तेल या घी में पकाने पर यह त्रिदोष-नाशक है। कोमल मूली दोषहर है। पकी और जरठ मूली त्रिदोष-कारक है। सूखी मूली लम्ब, कफवातजित् और विषहर है। सामान्यतः मूली उष्णवीर्य, रुचिकर और अग्नि-प्रदीपक है। यह उदर कृमिघ्न, कफ-वातनाशक और अर्शरोग में लाभदायक है।

मूली के पत्तों का रस मूत्रल, सारक एवं पथरी और रक्त-पित्त का नाशक है। इसके फूल कफ-पित्तनाशक हैं।

मूली की फलियाँ उष्ण और कफ तथा वायु को दूर करनेवाली हैं। मूली के बीज मूत्रल, रेचक और पथरी को पिघलाकर बाहर निकालने में उपयोगी हैं।

चरक और सुश्रुत ने अनेक रोगों पर मूली का उपयोग बताया है। अग्निमांद्य, अरुचि, पुरानी कब्ज, अर्श, अफरा, कष्टार्तव (स्त्रियों को मासिक ऋतुस्राव में पीड़ा होना), जीर्ण प्रमेह, मूत्रकृच्छ्र, पथरी, कफ-वात-ज्वर, श्वास, हिचकी और सूजन इन सभी रोगों में मूली लाभकारक है। चक्रदत्त ने कफवातजन्य ज्वर, अर्श, अतिसार, प्रवाहिका, श्वास, हिचकी, सूजन वगैरह पर मूलायूष की-पासवन जैसे पतले रस की योजना की है।
अफरा, अपच और वायुजनित खाँसी पर मूली का साग हितकारी है। शीतपित्त के जीर्ण रोगी को मूली का यूष देना गुणकारी है। जीर्ण मलावरोध में मूली का साग प्रतिदिन खाने से फायदा करता है। इसके पत्तों का रस उदरशूल, अर्श और अफरे में हितावह है। स्त्रियों का मासिक ऋतुस्राव ठीक से न आने पर इसके बीज तीन-तीन माशा दिये जाते हैं। सूजाक-प्रमेह में इसके बीज छः-छः माशा देने से पूयनस्राव होकर दर्द मिटता है।

कोमल मूली में शक्कर मिलाकर खाने से अथवा इसके पत्तों के रस में शक्कर मिलाकर पीने से अम्लपित्त मिटता है।

सूखी मूली का थोड़ा गर्म काढ़ा पाँच से दस तोला एक-एक घंटे पर पिलाने से हिचकी बंद होती है।

मूली के रस में नीबू का रस मिलाकर पीने से भोजन के बाद पेट में होनेवाला दर्द या गैस मिटता है।

कोमल मूली के काढ़े में पीपर का चूर्ण मिलाकर पीने से अग्नि प्रदीप्त होता है एवं अपच अथवा अपचजन्य उल्टी या दस्त बन्द होते हैं।

मूली और तिल खाने से, चमड़ी के नीचे एकत्रित पानी का शोषण होता है और सूजन मिटती है। मूली के पत्तों का ढाई से पाँच तोला रस पिलाने से भी सूजन जल्दी से उतरती है।

मूली के पत्ते और सफेद कंद निकालकर, पत्तों के नीचेवाला हरा भाग पीसकर रस निकालकर इसमें छः माशा घी मिलाकर रोज सुबह पीने से रक्तार्श मिटते हैं। शुष्क अर्श में भी इससे लाभ होता है।

रसवंती को मूली के रस की सात भावना देकर, एक-एक रत्ती की गोलियाँ बनाइए। दिन में दो बार मक्खन के साथ दो-दो गोलियाँ खिलाने से रक्तार्श मिटते हैं।

सूखी मूली का जूस पिलाने से और सूखी मूली की पुटली का सेंक करने से अर्श-मस्से में लाभ करता है।

मूली के पत्तों के रस में सोडा बाय कार्ब मिलाकर पिलाने से पेशाब साफ आता है और मूत्रावरोध दूर होता है। कोमल मूली के पत्तों के रस में शोरा डालकर नाभि पर लेप करने से मूत्राघात मिटता है।
मूली के पत्तों के रस में शोरा डालकर पिलाने से पथरी मिटती है। मूली के चार तोला बीज को आधा सेर पानी में उबालकर, आधा पानी बाकी रहने पर पिलाने से भी पथरी दूर होती है।

मूली के बीज का चूर्ण पीठ पर होनेवाली वायुजनित पीड़ा पर दिया जाता है।

मूली के बीज को अग्घाड़े के रस में पीसकर लेप करने से सिध्मकुष्ठ मिटता है।

खाली पेट मूली खाने से छाती में दाह होता है और पित्त उत्तेजित होता है। शरदऋतु में भी मूली का सेवन हितावह नहीं है।

यूनानी वैदक के मत अनुसार मूली गर्म है। यह गरिष्ठ भोजन का पाचन करती है, परंतु स्वयं विलंब से पचती है। मूली अर्श रोग में हितावह है। इसका साग मूत्रल है। यह वृक्क और मूत्राशय की पथरी को पिघलाकर बाहर निकालती है मूली जीर्ण खाँसी और दूषित रस में हितावह है। यह कफ को बाहर निकालती है। मूली के बीज उष्ण और शुष्क हैं। ये वृक्क और यकृत को नुकसान पहुँचाते हैं।

वैज्ञानिक मत के अनुसार मूली में प्रोटीन, कार्बोहाइड्रेट, कॅल्शियम, फॉस्फरस और लोह हैं। इसमें विटामिन ‘ए’, ‘सी’, पोटेशियम और सूक्ष्म मात्रा में तांबा भी हैं। इसकी राख क्षारयुक्त होती है। मूली उष्णवीर्य है। ताजे पत्तों का रस और बीज मूत्रल, अनुलोमन और प्रस्तरीनाशक हैं एवं इसके ताजा पत्ते रक्तपित्तशामक हैं।