तुरई के फायदे [Benefits of Ridge gourd]

पोषक तत्वों की दृष्टि से नेनुए और तुरई में विशेष फर्क नहीं है। तुरई भारत में सर्वत्र होती है। पश्चिमी देशों में तरकारी के रूप में यह प्रचलित नहीं है। दक्षिण और पूर्व भारत में इसकी तरकारी अधिक लोकप्रिय है।

तुरई की बेल बहुत लंबी होती है। इस पर हल्के पीले रंग के फूल लगते हैं। नेनुए के फूल सुबह खिलते हैं, जबकि तुरई के फूल पिछले पहर खिलते हैं।

Ridge gourd


तुरई के फल लंबे होते हैं और उस पर धारियाँ रहती हैं। तुरई के बीज वर्षा के आरंभ में छः-छः फीट के अंतर पर, क्यारियों की पंक्तियों में, दो पौधों के बीच ढ़ाई फीट का फासला रखकर बोये जाते हैं। गर्मियों में दो पंक्तियों के बीच साढ़े चार से पाँच फीट तथा दो पौधों के बीच करीब डेढ़ फुट का अंतर रखकर इन्हें बोया जाता है।

बोने के बाद दो ढाई महीने में फसल उतरने लगती है। वर्षाऋतु के आरंभ में बोआई की जाए तो श्रावण-भाद्रपद में, माघ मास में बोआई की जाए तो वैशाख-ज्येष्ठ में और चैत बैशाख में बोआई की जाए तो ज्येष्ठ आषाढ़ में फसल तैयार रहती है।

तुरई मीठी और कड़वी इस प्रकार दो किस्म की होती है। कड़वी तुरई भी मीठी तुरई जैसी ही होती है और जंगल में अपने आप उग जाती है। कभी-कभी मीठी तुरई की बाड़ी में मीठी तुरई के साथ में भी यह घुलमिल जाती है। मीठी तुरई की धारियों की संख्या दस और कड़वी तुरई की धारियों की संख्या नौ होती है। इस प्रकार भी मीठी-कड़वी तुरई कीपहचान हो जाती है। यद्यपि तुरई को चखकर ही उसकी तरकारी बनाई जाती है।

“तुरई कहती-मैं टेढ़ी-मेढ़ी, मेरे सिर पर धरी,
स्वाद के लिए मुझमें डालें, नीबू-काली मिरची।”

तुरई के साग में काली मिर्च और नीबू का रस डालने से वह स्वादिष्ट बनता है और उसका वातगुण कम होता है। तुरई में पानी का हिस्सा ज्यादा होने के कारण इसके साग में तेल अधिक मात्रा में डालना चाहिए। इससे तुरई का वातल गुण कम होता है।

कड़वी तुरई रेचक और वमन करानेवाले उपविष के समान है, अतः इसका उपयोग केवल औषध के रूप में ही होता है।

तुरई को सौराष्ट्र-काठियावाड़ में ‘घिसोडे’ कहते हैं। कुछ लोग इसे ‘झूमखड़ी’ भी कहते हैं। तुरई और दोड़का एक ही जाति की तरकारियाँ हैं। दोडके छोटे-तीन से छः इंच लंबे और तुरई एक फीट लगभग लंबी होती है। तीन-चार फीट लंबाईवाली तुरई की एक किस्म भी आती है। तुरई पर धारियाँ-नालियाँ रहती हैं अतः इसका नाम ‘धाराकोशातकी’ पड़ा है।

तुरई शीतल, मधुर, कफ तथा वायु करनेवाली, पित्तनाशक और

अग्नि-दीपक है। यह श्वास, ज्वर, खाँसी और कृमि को मिटाती तथा

मलावरोध को दूर करती है।

तुरई की बेल के मूल को गाय के दूध अथवा ठंडे पानी में घिसकर रोज सुबह, तीन दिन तक, पीने से पथरी मिटती है।

तुरई की बेल के मूल को ठंडे पानी में घिसकर बद पर लगाने से अथवा तुरई को उबालकर, बारीक पीसकर, बद पर लगाने से चार प्रहर में बद की गाँठ दूर हो जाती है।

तुरई की बेल के मूल को गाय के मक्खन में अथवा एरंड-तेल में घिसकर दो-तीन बार चुपड़ने से, गर्मी के कारण बगल या जांघ के मोड़ में पड़नेवाले चकत्ते मिटते हैं।

तुरई कफकारक और वातल है। वर्षाऋतु में यदि इसका अत्यधिक सेवन किया जाए तो वायु-प्रकोप होने में देर नहीं लगती। तुरई पचने में भारी और आमकारक है, अतः वर्षाऋतु मैं तुरई का साग रोगी व्यक्तियों के लिए हितकारी नहीं है। वर्षाऋतु का सस्ता साग-तुरई बीमारों के लिए हितकारी नहीं है। स्वस्थ्य व्यक्तियों को भी अच्छी मात्रा में लहसुन और तेल डाला हुआ साग ही खाना चाहिए।