कुम्हड़ा के फायदे

कुम्हड़ा के फायदे



कुम्हड़ा लाभकारी और पित्तशामक है। कोमल प्रकृतिवालों या शरीर में अत्यधिक गर्मीवालों के लिए इसका साग उत्तम पथ्य है। भारत में कुम्हड़ा सर्वत्र होता है। अच्छे निथारवाली जमीन इसके लिए अनुकूल रहती है।

इसके पत्ते बड़े-बड़े और फूल पीले रंग के होते हैं। इसके फल-कुम्हड़े आठ सेर से लेकर एक मन तक के वजन के होते हैं। एक बेल पर पचास-साठ कुम्हड़े लगते हैं।


कुम्हड़े की ग्रीष्मकालीन व वर्षाकालीन इस प्रकार दो फसलें ली जा सकती हैं। ग्रीष्म कालीन फसल माघ मास के बीच में लगाई जाती है और आषाढ़ मास के प्रारंभ में तैयार हो जाती है। वर्षाकालीन फसल ज्येष्ठ-आषाढ़ में बोई जाती है और आश्विन-कार्तिक मास में तैयार होती है। कुम्हड़े पक जाएँ और उसकी बेल मुरझाकर सूखने लगे तब कुम्हड़े तोड़ लें। अच्छा तंदुरुस्त कुम्हड़ा एक-डेढ़ वर्ष तक नहीं बिगड़ता। अच्छा पका हुआ और पुराना कुम्हड़ा गुणकारी माना जाता है।

कुम्हड़े छोटे-बड़े, गोल-लंबगोल इस प्रकार अनेक किस्म के होते हैं। इनमें मुख्य किस्में दो हैं-सफेद या भूरा और लाल। साग के लिए लाल कुम्हड़े को उपयोग होता है। लाल कुम्हड़े में शर्करा की मात्रा विशेष होने से गुजरात में उसे ‘शक्कर-कुम्हड़ा’ भी कहते हैं। सफेद या भूरे कुम्हड़े का उपयोग हलुआ, पाक और पेंठा बनाने में होता है। औषधियाँ बनाने में भी सफेद या भूरे कुम्हड़े का इस्तेमाल होता है। वैष्णव लोग भूरे कुम्हड़े के रस में पापड़ बनाते हैं। ग्वार या चौराफली आदि वातल सागों के साथ कुम्हड़े का मिश्र साग किया जाता है। कुम्हड़े के साथ ग्वारफली मिलाने से साग ज्यादा स्वादिष्ट होता है।

‘कुष्माण्डं कोमलं विषम्।’ अर्थात् सुकोमल (अपक्व, कच्चा) कुम्हड़ा विष समान माना जाता है। अतः कभी साग में कच्चे कुम्हड़े का उपयोग न करें। पुराने कुम्हड़ों का संग्रह करके यदा-कदा उसका साग बनाया जा सकता है। महाराष्ट्र और मध्यप्रदेश के लोग साग के रूप में कुम्हड़े का अत्यधिक उपयोग करते हैं।

उरःक्षत, खून की उल्टी या कफ के साथ खून निकलता हो तो कुम्हड़े के बीज का हलुवा या पाक बनाकर दिया जाता है। मथुरा क्षेत्र में भूरे कुम्हड़े के साथ शक्कर मिलाकर ‘पेंठा’ नामक स्वादिष्ट मिठाई बनाई जाती है। कुम्हड़ा पुष्टिकर्ता, वीर्यवर्धक और गरिष्ठ है। यह पित्त, रक्तविकार और वायु को मिटाता है। छोटा कोमल कुम्हड़ा शीतल और पित्त-नाशक है, मध्यम अपक्व कुम्हड़ा कफ-कारक है, बड़ा कुम्हड़ा ज्यादा शीतल नहीं है, मधुर है और यदि क्षार के साथ लिया जाए तो अग्नि को प्रदीप्त करनेवाला, हल्का, मूत्राशय को साफ करनेवाला, पित्त के रोगों को हरनेवाला तथा समस्त दोषों को मिटानेवाला है।

कुम्हड़ा शीतल, रुचिवर्धक, मूत्रल, मधुर, दाह और पित्त का शमन करनेवाला, बल्य और शुक्र की वृद्धि करनेवाला तथा पौष्टिक है। यह मूत्राघात मधुमेह मूत्रकृच्छ्र पथरी, तृषा, रक्तविकार वगैरह रोगों को मिटाता है। कुम्हड़ा बलकारक, श्रमशक्ति बढ़ानेवाला, शरीर को पुष्ट करनेवाला एवं श्रम, उन्माद और भ्रांति का नाशक है। यह मानसिक रोग, हृदयरोग, फेफड़ों के रोग और रक्तपित्त पर अमूल्य पथ्य है। इसके बीज का गर्भ कृमिघ्न है।

पुराना, बड़ा, मटमैला कुम्हड़ा लेकर उसकी छाल निकाल दीजिए। फिर उसे काटकर बीज तथा भीतरी नर्म गर्भ निकाल दीजिए। इसके बाद कुम्हड़े के एक-एक दो-दो रुपये भर के कतले बनाकर उन्हें पानी में उबालिए। जरा नरम पड़ने पर उन्हें कपड़े पर डालकर पानी निकाल लीजिए। उबले हुए कतलों को दुगुनी शक्कर की चासनी में डालिए। इसमें केसर और इलायची-दाने इच्छानुसार डाले जा सकते हैं। यह मुरब्बा मस्तिष्क की गर्मी, भ्रम, सिर चकराना, उन्माद, अनिद्रा आदि को मिटाता है।

दस तोले कुम्हड़े को कद्दकश पर कसकर, पाँच तोला घी में चूल्हे पर सेंकिए। उसमें लौकी, कुम्हड़े, ककड़ी और तरबूज के बीज, बादाम, मखाना बादाम, चिलगौंजा और इलायची इन सभी चीजों को समान वजन में लेकर कूटकर, डेढ़ तोलाभर डालिए। सभी चीजों को घी में तलकर, उसमें पाँच तोला शर्करा डालकर पुनः सेंकिए और हलुआ बनाइए। विकासशील बच्चों, विद्यार्थियों, वृद्ध स्त्री-पुरुषों, दाह, जलन, पित्त या गर्म प्रकृतिवालों; रक्तवात, प्रदरवाली स्त्रियों और पेशाब की जलनवालों के लिए प्रातःकाल खाली पेट, इस हलुवे का सेवन गुणकारी है।

कुम्हड़े के टुकड़ों को उबालकर, उनमें से निकाला हुआ रस 200 तोला, शर्करा 128 तोला, घी, 128 तोला, उबाले हुए कुम्हड़े के टुकड़े 400 तोला तथा अडूसी का रस 500 तोला, सभी को एकत्र कर, धीमी आँच पर पकाइए। गाढ़ा होने पर उसमें हर्र, आँवले, भोरिंगमूल, दारचीनी तथा इलायची, प्रत्येक का चूर्ण एक-एक तोला और तालीस-पत्र, सोंठ, धनिया तथा काली मिर्च, प्रत्येक का चूर्ण चार-चार तोला, पीपर का चूर्ण सोलह तोला तथा शहद बत्तीस तोला डालकर पाक तैयार कीजिए और उसे चीनी मिट्टी या काँच के बर्तन में भर लीजिए। अग्नि-बल के अनुसार इस अवलेह का रोज सेवन करने से यह रक्तपित्त, रक्तवाली खाँसी, खाँसी, ज्वर, हिचकी, हृदयरोग, अम्लपित्त और जुकाम-सर्दी को मिटाता है। यह अवलेह क्षयरोगी और हीनवीर्य व्यक्तियों के लिए आशीर्वाद के समान है।

कुम्हड़े को छीलकर उसमें से गर्म नर्भ और बीज निकाल लें। बीचवाला हिस्सा साढ़े तीन सेर लेकर साढ़े चार सेर पानी में पकाइए। पकने पर कपड़े से रस को निचोड़ लें। रस को अलग से रख लें। पकाये हुए कुम्हड़े को गाय के डेढ़ पाव घी में, ताँबे के बर्तन में डालकर, शहद के समान रंग होने तक सेंकिए। उसमें अलग से रखे हुए कुम्हड़े के रस को मिला लीजिए।

उसमें साढ़े तीन सेर शक्कर मिलाकर अवलेह तैयार कीजिए। उसमें पीपर, सोंठ और जीरे का चूर्ण चार-चार तोला एवं धनिया, तमाल-पत्र,इलायची-दाने, काली मिर्च और दारचीनी का चूर्ण एक-एक तोला डालकर पन्द्रह-बीस मिनट तक हिलाइए। ठंडा होने पर उसमें सोलह तोला शहंद मिलाइए। यह अवलेह तीन माह तक दो से तीन तोला रोज सुबह-शाम खाकर ऊपर गाय का दूध पीने से वजन बढ़ता है, मुँह पर तेजस्विता आती है और पाचनशक्ति खूब बढ़ जाती है। यह अवलेह रक्तपित्त, पित्तज्वर, तृषा, दाह, प्रदर, दुर्बलता, उल्टी, खाँसी, श्वास, हृदयरोग, स्वरभेद, क्षत, क्षय और आंत्रवृद्धि को मिटाता है। यह अवलेह पौष्टिक और बलदायक है। क्षयवालों का यह लघु सुपाच्य आहार है। यह अवलेह न अति गर्म है और न अति ठंडा। सर्दियों के तीन महीने इस पाक का सेवन करने योग्य है। वृद्धों और बालकों के लिए भी यह बहुत हितकारी है। यह अवलेह हृदय और फेफड़ों को बलवान बनाता है, रक्त की अतिरिक्त गर्मी को दूर करता है और मस्तिष्क को पुष्टि देता है।

कुम्हड़े के मूल का चूर्ण सोंठ के चूर्ण के साथ मिलाकर दिन में दो-तीन बार लंबे अर्से तक लेने से साँस का रोग (दमा) मिटता है।

कुम्हड़े के बीज के गर्भ के आटे को घी में सेंककर, शर्करा मिलाकर, लड्डू बनाइए। थोड़े दिन तक रोज सुबह इनका सेवन करने से अतिशय मेहनत करने पर आई हुई दुर्बलता दूर होती है।

कुम्हड़े के रस में शर्करा डालकर पीने से अम्लपित्त मिटता है।

भूरे कुम्हड़े को सुखाकर, चूर्ण बनाकर खाने, उसकी तरकारी बनाकर खाने या उसका पाक-अवलेह बनाकर खाने से पांडुरोग मिटता है। (भूरा कुम्हड़ा पांडुरोग में सबसे सस्ता पांडुरोगहर औषध है।)

अच्छा पका हुआ बड़ा कुम्हड़ा. (शक्कर कुम्हड़ा या भूरा कुम्हड़ा) लेकर छाल के साथ ही उसके छोटे-छोटे टुकड़े कीजिए। उनको सुखाकर मिट्टी के बर्तन में भर दीजिए और उस पर अच्छी तरह ढक्कन लगाकर कपड़े-मिट्टी द्वारा उसका मुखभाग बंद कर दीजिए। इसके बाद धीमी आँच पर पन्द्रह मिनट तक उसे गर्म कीजिए। एकाध घंटे के बाद, बर्तन ठंडा होने पर, जले हुए टुकड़े कूटकर उसकी भस्म बनाइए। इसे एक साफ बीतल में भरकर मजबूत डाट लगा दीजिए। इसमें से दो ग्राम भस्म लेकर उसमें सोंठ का चूर्ण मिलाकर, गर्म पानी के साथ दिन में तीन बार फाँकने से पेट, छाती, पसली या शरीर के किसी भी हिस्से का भयंकर असाध्य शूल मिटता है।

भूरे कुम्हड़े का सागं घी में बनाकर खाने से अथवा उसका रस निकालकर, उसमें शक्कर मिलाकर, सुबह-शाम आधा-आधा कप पीने से, स्त्रियों का अत्यधिक मासिक ऋतुस्राव शरीर का दाह और खून की कमी में उत्तम लाभ होता है।

कुम्हड़े का रस हींग और जवाखार मिलाकर पिलाने से पथरी में गुणकारी सिद्ध होता है।

कुम्हड़े के बीज के छटांक भर गर्भ को दूध में पीसकर, छानकर, उसमें थोड़ा-सा शहद मिलाकर पिलाने से अथवा कुम्हड़े के बीज के गर्भ के सवा-सवा तोला तेल को दो-दो घंटे के अंतर से, तीन बार, दूध के साथ पिलाने और उस पर एरंड तेल का विरेचन देने से पेट के भीतर रहे हुए चपटे कृमि निकल जाते हैं। ये कृमि यदि बड़े हो जाते हैं तो फीकापन, अरुचि, उबकाई, अग्निमांद्य, रक्तविकार, पेट का भारीपन और व्याकुलता उत्पन्न होती है। (जब तक सभी कृमि निकल न जाएँ तब तक उपर्युक्त प्रयोग जारी रखें। भोजन में खिचड़ी या दाल-चावल दीजिए।) कुम्हड़े के रस में गुड़ डालकर पिलाने से शराब का नशा उतरता है। कुम्हड़े का रस पीने या कुम्हड़े का टुकड़ा खाने से विष पर हितकारी होता है।

कुम्हड़े के ढेप को पानी में घिसकर बिच्छु के डंक पर लगाने से राहत होती है।

वैज्ञानिक मतानुसार कुम्हड़ा शीतल और मूत्रजनन है। इससे रक्तवाहिनियों का संकोच होता है। यह अधिक मात्रा में लेने से दस्त साफ आता है और नींद आती है। उन्माद में जब रोगी की आँखें लाल हो जाएँ, नाड़ी की गति तीव्र हो जाए तथा रोगी उत्तेजित हो गया हो तब कुम्हड़े का रस देने से दस्त साफ आता है और नींद आती है। क्षय में कभी-कभी फेफड़ों में से रक्तस्राव होता है तब अथवा शरीर के भीतर अन्य किसी अवयव में से रक्तस्राव होता है तब कुम्हड़े का रस दिया जाता है। क्षय की प्रथम अवस्था में (मोतीपिष्टि के साथ) कुम्हड़े का ताजा रस देने से उत्तम लाभ करता है। मधुमेह में कुम्हड़े का रस दिया जाता है।